Thursday, November 19, 2009

Arz kiya hai

सिमटना यूँ अपनेआप में...
मुझे रास न आया कभी....
मै तो उन्मुक्त गगन में ...
सीमओं के बंधन से मुक्त हों...
सोच के पंखो को फैला के...
दूर दूर तक उड़ते रहना चाहती हु...

धरती पे मेरे अहसासों का समंदर बड़ा गहरा है..अक्सर उसमे गोते लगाती हु...कभी खुद डूबती हु तो कभी अपने आप को डुबोती हु...अहसासों की लहरे बड़ी तीव्र होती है...टकरा टकरा के और ज्यादा तेज हों जाती है...अपने किनारे को तलाशने में रात दिन उछलती रहती है..अहसासों के इस टकराव से अक्सर तन् और मन् घर्षित हों जाते है...

"मन रूपी सागर" में उठनेवाली
"भावना रूपी लहरों" को
"शब्द रूपी किनारा" न दिया जाए तो ये
"तन् रूपी चट्टानों" से टकरा टकरा के घर्षित हों जायेगी...!!!!!!


इन लहरों को किनारा देने का मेरा ये एक प्रयास................

चंचल से इस मन् की बाते
कितनी उलझी-सुलझी ...
कभी लगे मानो जग अपना
तो कभी सब से बेरुखी सी !

खुद से जवाब पूछे ये और
देता उत्तर खुद से ही
न मिले संतुष्टि उत्तर से तो
नाराजगी भी खुद से ही !!

भ्रम जाल में उलझा ये जीवन,
पार पाना है खुद से ही...
मिलेंगे साथी यहाँ बहुतेरे लेकिन
उलझन सुलझेगी खुद से ही!!!

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