क्यूँ छला गया बार-बार
क
एक बार फिर भीगा मन, एक बार फिर अलसाया तन,
अमराई मे ,बगिया मे , लेकिन....
दुनिया के झमेलों मे फिर टूटा तन,
फिर फिर उदास उलझा मन
सोचा था इस बार तो खेवनहार होगा,
जीवन नैया को पार लगायेगा,
मेरे मन को समझेगा, लेकिन....
फिर वही पुनरावृति,
हार गया मन, टूट गया तन,
फिर छल गया कोई जीवन का मीत...
झूठे वादे सहानुभूति की थापें
मन पर चढ़ती तानो की बौछारें
देता भी कौन ?
मेरा अपना मीत, जो केवल मेरा था,
कभी सपनीली आँखों का सपना था,
लेकिन......
आज वही रूठा हुआ है,
खुद कसूरवार है फिर भी आरोप लगाकर,
करता आहत है,
मन पूछता है अपने आप से,
क्यूँ छला गया बार-बार....
_ सुदर्शन खरे.
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