जिसमे मनुष्य को छान सको मन, ऐसी छलनी नहीं बनी !!
जिसमे मनुष्य को छान सको मन, ऐसी छलनी नहीं बनी,
सबको ऐसे ही स्वीकारो, जैसे स्वीकार इश्वर ने !
दीवे की लौ ने कब सोचा, वह मरघट में है या घर में,
जीवन में से दुखः छान सको मन, ऐसी छलनी नहीं बनी !!
सोते ही अनगिन रूप धरे, सपने बन जाती इच्छाएं
अनचाहे ही मन को सहनी पड़ती सुख दुःख की घटनाएं
नींदों से सपने छान सको मन, ऐसी छलनी नहीं बनी !!
कुछ पल जो बेला चंपा थे अब उनका ध्यान बबूल हुआ,
कब किसकी कितनी पूजा की यह चिंतन भी निर्मूल हुआ,
प्राणों से सुधियाँ छान सको मन, ऐसी छलनी नहीं बनी !!
जिसमे मनुष्य को छान सको मन, ऐसी छलनी नहीं बनी !!
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